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Monday 5 December 2011

भगवती शांता परम सर्ग-3 : भगिनी शांता

शान्ता के चरण

चले घुटुरवन शान्ता, सारा महल उजेर |
दास-दासियों ने रखा, राज कुमारी घेर ||

सबसे प्रिय उसको लगे, अपनी माँ की गोद |
माँ बोले जब  तोतली, होवे महा विनोद ||

कौला दालिम जोहते, बैठे अपनी बाट |
कौला पैरों को मले, हलके-फुल्के डांट ||

दालिम टहलाता रहे, करवाए अभ्यास |
बारह महिने  में चली, करके स्वयं प्रयास ||

हर्षित सारा महल था, भेज अवध सन्देश |
शान्ता के पहले कदम, सबको लगे विशेष ||

दशरथ कौशल्या सहित, लाये रथ को  तेज |
पग धरते देखी सुता, पहुँची ठण्ड करेज || 

कौशल्या मौसी हुई, मौसा भूप कहाँय |
सरयू-दर्शन का वहाँ, न्यौता देते जाँय ||

एक  मास के बाद में, शान्ता रानी संग |
गए अवधपुर घूमने, देख प्रजा थी दंग || 

कौला को दालिम मिला, होनहार बलवान |
दासी सब ईर्ष्या करें, तनिकौ नहीं सुहान ||
प्रेम और विश्वास का, होय नहीं व्यापार ।
दंड-भेद से ना मिले, साम दाम वेकार ।।

स्नेह-समर्पण कर दिया, क्यों कुछ मांगे दास ?
निज-इच्छाएं कर दफ़न, मत करवा परिहास ।।
मौसा-मौसी  के यहाँ, रही शान्ता मस्त |
दौड़ा-दौड़ा के करे, कौला को वह पस्त ||

अपने घर फिर आ गई, एक पाख के बाद |
राजा ने पाया तभी, महा-मस्त संवाद ||


प्रथम चरण की धमक के, लक्षण बड़े महान |
हैं रानी चम्पावती,  इक शरीर दो जान ||

हर्षित भूपति नाचते, बढ़ा और भी प्यार |
ठुमक-ठुमक कर शान्ता, होती पीठ सवार ||

पैरों में पायल पड़े, झुन झुन बाजे खूब |
आनंदित माता पिता, प्यार में जाएँ डूब ||

शान्ता माता से हुई, किन्तु तनिक अब दूर |
पर कौला देती उसे, प्यार सदा भरपूर ||

राजा भी रखते रहे, बेटी का खुब ध्यान |
 अंगराज को मिल गई, एक और संतान ||

रानी पाई पुत्र को, शान्ता पाई भाय |
देख देख के भ्रात को, मन उसका हरसाय ||




नारी का पुत्री जनम, सहज सरलतम सोझ |
सज्जन रक्षे भ्रूण को, दुर्जन मारे खोज ||

नारी  बहना  बने जो, हो दूजी संतान
होवे दुल्हन जब मिटे, दाहिज का व्यवधान ||

नारी का है श्रेष्ठतम, ममतामय  अहसास |
बच्चा पोसे गर्भ में,  काया महक सुबास ||

 कौला भी माता बनी , दालिम बनता बाप |
पुत्री संग रहने लगे, मिटे सकल संताप ||

फिर से कौला माँ बनी, पाई सुन्दर पूत |

भाई बहना की बनी, पावन जोड़ी नूत ||

शान्ता होती सात की, पांच बरस का सोम |
परम बटुक छोटा जपे, संग में सबके ॐ ||

कौला नियमित लेपती, औषधि वाला तेल |
दालिम रक्षक बन रहे, रोज कराये खेल ||

जबसे शान्ता है सुनी, गुरुकुल जाए सोम |

गुमसुम सी रहने जगी, प्राकृति हुई विलोम || 

माता से वह जिद करे, जाऊँगी उस ठौर |

भाई के संग ही रहूँ, यहाँ रहूँ ना और ||


माता समझाने लगी, कौला रही बताय |

यहीं महल में पाठ का, करती आज उपाय ||


गुरुकुल से आये वहाँ, तेजस्वी इक शिष्य |

शान्ता संग यूँ सुधरता, रूपा केर भविष्य ||


दीदी का होकर रहे, कौला दालिम पूत |

 रक्षाबंधन में बंधे, उसको पहला सूत ||


बाँधे भैया सोम के, गुरुकुल में फिर जाय |

प्रभु से विनती कर कहे, हरिये सकल बलाय ||


दालिम को मिलती नई, जिम्मेदारी गूढ़ |

राजमहल का प्रमुख बन, हँसता जाए मूढ़ ||

 
दालिम से कौला कही, सुनो बात चितलाय |
भाई को ले आइये, माता लेव बुलाय ||

सुख में अपने साथ हों, संग रहे परिवार |
माता का आभार कर, यही परम सुविचार ||

संदेसा भेजा तुरत, आई सौजा पास |
बीती बातें भूलती, नए नए एहसास ||

छोटा भाई भी हुआ, तगड़ा और बलिष्ठ |
दालिम सा ही था रमण, विनयशील व शिष्ट ||

रमण सुरक्षा में लगा, शान्ता के तुरन्त |
 रानी माँ भी खुश हुई, देख शिष्ट बलवंत ||

सौजा रूपा बटुक का, हर पल राखे ध्यान |
रानी की सेवा करे, कौला इस दरम्यान ||

राज वैद्य आते रहे, करने को उपचार |
चार बरस में मिट गए, सारे अंग विकार ||


एक दिवस की बात है, बैठ धूप सब खाँय |
घटना बारह बरस की, सौजा रही सुनाय ||


 सौजा दालिम से कहे, वह आतंकी बाघ |
बारह मारे पूस में, पांच मनुज को माघ ||

सेनापति ने रात में, चारा रखा लगाय |
पास ग्राम से किन्तु वह, गया वृद्ध को खाय ||

नरभक्षी पागल हुआ, साक्षात् बन काल |
पशुओं को छूता नहीं, फाड़े मानव खाल ||

चारा बनने के लिए, कोई न तैयार |
बकरा बांधे नित करे, महिना होते पार ||

एक रात में जब सभी, बैठे घात लगाय |
स्त्री छाया इक दिखी, अंधियारे में जाय ||

एक शिला पर जम गई, उस फागुन की रात |
आखेटक दल के सभी, सेनापति घबरात ||

बिना योजना के जमी, वह अबला बलवीर |
हाथों में भाला उठा, सजा धनुष पर तीर ||

तीन घरी बीती मगर,  लगा टकटकी दूर |
राह शिकारी देखते, आये बाघ जरूर ||

फगुआ गाने में मगन, गाये मादक गीत |
साया इक आते दिखी, बोली कोयल मीत ||

होते ही संकेत के,  देते धावा बोल |
घोर विषैले तीर से, गया बाघ झट डोल ||

भालों के वे वार भी, बेहद थे गंभीर ||
छाती फाड़ा बाघ की, माथा देता चीर ||

शान्ता चिंतित दिख रही, बोली दादी बोल |
उस नारी का क्या हुआ, जिसका कर्म अमोल ||

सौजा बोली कुछ नहीं, मंद मंद मुसकाय |
माँ के चरणों को छुवे, दालिम बाहर जाय ||

सौजा ने ऐसे किया, पूरा पश्चाताप |
निश्छल दालिम के लिए,  वर है माँ का शाप ||

 
शान्ता की शिक्षा हुई, आठ बरस में पूर |
पाक कला संगीत के, सीखे सकल सऊर || 

शांता विदुषी बन गई, धर्म-कर्म में ध्यान |
 भागों वाली बन करे, सकल जगत कल्याण ||

गुणवंती बाला बनी, सुन्दर पायी रूप |
नई सहेली पा गई, रूपा दिखे अनूप ||

अवध पुरी में दुःख पले, खुशियाँ रहती रूठ |
राजमहल में आ रहे, समाचार सब झूठ ||

कई बार आये यहाँ, श्री दशरथ महराज |
बेटी को देकर गए, इक रथ सुन्दर साज ||

रथ पर अपने बैठ कर, वन विहार को जाय |
रूपा उसके साथ में, हर आनंद उठाय ||

रमण हमेशा ध्यान से, पूर्ण करे कर्तव्य |
रक्षक बन संग में रहे, जैसे रथ का नभ्य ||

बटुक परम नटखट बड़ा, करे सदा खिलवाड़ |
शान्ता रूपा खेलती, देता परम बिगाड़ ||

फिर भी वह अति प्रिय लगे, आज्ञाकारी भाय |
शांता के संकेत पर, हाँ दीदी कर धाय ||
चिन्तित अवध
शान्ता तो खुशहाल है, दशरथ चिन्तित खूब |
कौशल्या परजा रही, गम-सागर में डूब ||

हद  से  होता  पार  जब, दोनों  का  अवसाद |
अंगदेश को चल पड़ें,  कभी कहीं अपवाद ||

चार वर्ष तक न हुई, कोई जब संतान |
दशरथ तो चिंतित रहें, कौशल्या उकतान ||

हो रानी की आत्मा, इकदम से बेचैन |
ढूंढ़ दूसरी लाइए, निकसे अटपट बैन |

हक्का-बक्का रह गए, सुनकर के महिपाल |
कौशल्या अनुनय करे, उसका हृदय विशाल ||

संग में मैं उसके रहूँ, अपनी बहना मान |
कभी शिकायत न करूँ, रक्खू हरदम ध्यान ||

बड़े-बुजुर्गों से मिले, व्यवहारिक सन्देश |
पालन मन से जो करे, पावे मान विशेष ||

यही सोचकर चुप रहे, दोनों रखते धीर |
हो कैसे युवराज पर, विषय बड़ा गंभीर ||

अरुंधती आई महल, बसता जहाँ तनाव |
कौशल्या के तर्क से, उन पर बढ़ा दबाव ||

अगले दिन गुरु ने किया, दशरथ का आह्वान |
अवधराज राजी हुए, छिड़ा नया अभियान ||

संदेशे भेजे गए, करना दूजा व्याह |
प्रत्त्युत्तर की देखती, उत्सुक परजा राह ||

पञ्च-नदी बहती जहाँ, प्यारा कैकय देश |
अपनी रूचि से भेजते, दशरथ खुद सन्देश ||

कैकय के महराज को, मिला एक वरदान |
खग की भाषा जानते, अश्वपती विद्वान ||

उनकी कन्या रूपसी, सुघढ़ सयानी तेज |
सात भाइयों में पली, पलकों रखी सहेज ||

माता का सुख न मिला, माता थी वाचाल |
 कैकय से बाहर गई, बीते बाइस साल || 

घटना है इक रोज की, उपवन में महराज |
 चीं-चीं सुनके खुब हँसे, महरानी नाराज ||

भेद खोलने की सजा, राजा के थे प्राण |
इसीलिए रानी करे, कैकय से प्रयाण ||

 भूपति खोलें भेद गर, प्राण जाएँ तत्काल |
रानी जिद छोड़ी नहीं, की थी बहुत बवाल ||


संबंधों की श्रृंखला, दशरथ से मजबूत |
शर्त सहित सन्देश पर, ले जाता यह दूत ||

मेरी पुत्री का बने, बेटा यदि युवराज |
स्वागत है बारात का, सिद्ध जानिये काज ||

कौशल्या कहने लगी, कोई न अवरोध  |
कैकेयी रानी बने, मेरा नहीं विरोध ||

रानी बनकर आ गई, साथ मंथरा धाय |
जिसके कटु व्यवहार से, महल रहा उकताय ||

चार साल बीते मगर, हुई न मनसा पूर |
सुमति सुमित्रा आ गई, हुए भूप मजबूर ||



कौशल्या की गोद के, सूख गए जो  फूल |
लंकापति रहता उधर, मस्त ख़ुशी में झूल ||


सम्भासुर करता उधर, इन्द्रलोक को तंग |
करे दुश्मनी दुष्टता, दशरथ के भी संग ||

युद्धक्षेत्र में थे डटे, एक बार भूपाल |
सम्भासुर के शस्त्र से, बिगड़ी रथ की चाल ||

कैकेयी थी सारथी, टूटा पहिया देख |
करे मरम्मत स्वयं से, ठोके खुद से मेख ||



घायल दशरथ को बचा, पहुंची अवध प्रदेश |
दो वर पाई गाँठ में, बाढ़ा मान विशेष ||

शांता बिन ये शादियाँ,  हो जाती नाकाम |
चौथेपन में अवधपति, केश सफ़ेद तमाम ||

चिंता की अब झुर्रियां, बाढ़ी मुखड़े बीच |
पूर्वकाल के पुण्य-तप,  राखें आँखें मीच ||
वन-विहार
माता संग गुरुकुल गई, बाढ़े भ्रात विछोह |
दक्षिण की सुन्दर छटा, लेती थी मन मोह ||

गंगा के दक्षिण घने, सौ योजन तक झाड़ |
श्वेत बाघ मिलते उधर, झरने और पहाड़ ||

मन की चंचलता विकट,  इच्छा  मारे जोर |
रूपा के संग चल पड़ी, रथ लेकर अति भोर ||

पंखो  को  फैला उडी, मिला   खुला  आकाश  |
खुद से करने चल पड़ी, खुद की खुदी तलाश ||

वटुक-परम पीछे  लगा,  सबकी नजर बचाय |
तीर धनुष अपना लिए, छुपकर साथे जाय ||
आपाधापी जिंदगी, फुर्सत भी बेचैन।
बेचैनी में ख़ास है, अपनेपन के सैन ।
अपनेपन के सैन, बैन प्रियतम के प्यारे ।
सखियों के उपहार, खोलकर अगर निहारे ।
पा खुशियों का कोष, ख़ुशी तन-मन में व्यापी ।
नई ऊर्जा पाय, करे फिर आपाधापी ।।
कौला लेकर औषधी,  रही भोर से खोज|
जल्दी ही हल्ला हुआ, लगी खोजने फौज ||

राजा-रानी ढूंढते, रमण होय हलकान |
बुद्धिहीन सा बदलता, अपने दिए बयान  |

अपने-अपने अश्व ले, चारो दिश सब जाय |
दौड़ा दक्षिण को रमण, घोडा जोर भगाय ||

काका झटपट भागता, बड़े लक्ष्य की ओर | 
घोडा चाबुक खाय के, लखे विचरते ढोर ||

गुरुकुल पीछे छूटता, आई घटना याद |
बाघ देखने की कही, शांता जब बकवाद ||

पहियों के ताजे निशाँ, पड़े भूमि पर देख |
माथे पर गहरी हुईं, चिंता की आरेख ||

आगे जाकर देखता, झरना बहता जोर |
बन्द रास्ता दीखता, दिखे विचरते ढोर ||

रथ आगे दीखे नहीं,  कैसे गया बिलाय |
अनहोनी की सोच के, रहा अँधेरा छाय ||

उतरा घोड़े से मिला, अंगवस्त्र इक श्वेत |
आगे बढ़ने पर दिखा, रथ फिर अश्व समेत ||

व्याकुलता ज्यादा बढ़ी, झटपट झाड़ी फांद |
दिखी सामने छुपी सी, एक बाघ की मांद ||

जी धकधक करने लगा, गहे हाथ तलवार |
एक एक कर आ रहे, मन में बुरे विचार ||

हिम्मत कर आगे बढ़ा, आया शर सर्राय |
देखा अचरज से उधर, खड़ा बटुक निअराय ||

बोला तेजी से रमण, परम बटुक दे ध्यान |
काका तेरा है इधर, ले लेगा क्या जान ||

सुनकर के आवाज यह,  दोनों बाला धाय |
काका को परनाम है, बोली बाहर आय ||

बैठी थी वे मांद में, नहीं बाघ का खौफ |
कहाँ हकीकत थी पता,  करती दोनों ओफ ||

काका जब फटकारते, नैना आये नीर |
गुर्राहट सुन काँपता, अबला देह सरीर ||

झटपट ताने धनुष को, चाचा और भतीज |
बाघ किन्तु दीखा नहीं, रहे हाथ सब मींज ||

जल्दी से चारो चले, अपने रथ की ओर |
चौकन्ने थे कान सब,  बिना किये कुछ शोर || 

शांता रूपा जा छुपी, रथ के बीचो-बीच |
खुली जगह पर रथ तुरग, घोडा लाया खींच ||  

गुरुकुल में फैली खबर, बोला छोटा शिष्य |
रथ तेजी से उत गया, आँखों देखा दृश्य ||

युद्ध-शास्त्र के चार ठो, चले सोम के मित्र |
पहला मौका पाय के, हरकत करें विचित्र ||

बग्घी की उस लीक पर, पैदल बढ़ते जाँय |
अस्त्रों को हैं भांजते,  चलते शोर मचाय ||

उधर बाघ दीखे नहीं, होय गर्जना घोर |
व्याकुलता से भागते, वहाँ विचरते ढोर ||

घोडा अकुलाये वहाँ, हिनहिनाय मजबूर |
जैसे आता जा रहा,  कोई हिंसक क्रूर ||

गिर-कंदर में गूंजती, रह रह कर आवाज |
धरती पर मानो गिरे, महाभयंकर गाज ||

रमण रहा घबराय पर, हिम्मत भरा दिखाय |
उलटे रास्ते की तरफ, रथ को गया बढ़ाय ||

घोडा भगा तीव्रतम, रह रह झटके खाय |
जैसे पीछे हो लगा, इक कोई  अतिकाय ||

सचमुच इक अतिकाय था, आगे घेरा डाल |
घोडा ठिठका जोर से, खड़ा सामने काल ||

रमण बोलते बटुक से, बेटा रथ को हाँक | 
कन्याओं से फिर कहे, मत बाहर को झाँक ||

शांता रूपा देखती, परदे की थी ओट |
आठ हाथ की देह को, खुद से रही नखोट ||

घिघ्घी दोनों की बंधीं, कसके दालिम -पूत |
तेजी से रथ हांकता, पहली बार अभूत ||

याद रमण को आ गया, दालिम का एहसान |
तीन जान खातिर अड़ा, वह  अदना  इंसान ||

ध्यान हटाने को रमण,  मारा उसको तीर |
काया पकडे हाथ से,  देती नख से चीर ||

बोली मैं हूँ ताड़का, मानव खाना काम |
पिद्दी सा तू क्या लड़े,  पल में काम तमाम ||
[tataka+ramayana.jpg]
 देखा उसको रमण जब, महिला का था रूप |
साफ़-साफ़ अब दिख रही, भद्दी विकट कुरूप ||
 
घोड़े के संग वीर तब, वापस भागा जान |
अपने पीछे ले लगा, योद्धा बड़ा सयान ||

लम्बे लम्बे ताड़का,  दौड़ी रख के पैर |
अट्ठाहास रह रह करे, मानव की ना खैर ||

अन्धकार छाया हुवा, गया नदी में कूद |
रमण मूल पानी बहा, घोड़ा खाई सूद ||

परम बटुक रथ हाँक के, आया बारह कोस |
सोम-मित्र  देखे सकल, तब आया था होश ||

जल्दी से रथ में चढो, तनिक करो न देर |
राक्षस इक पीछे पड़ा, होवे ना अंधेर ||

शांता रूपा बोलती, देखी जब वे सोम |
लाख लाख आभार है, ताके ऊपर व्योम ||

काका प्यारे झूझते,  देते अपनी जान |
हमें बचाने के लिए, हुवे वहाँ कुर्बान ||

गुरुकुल पहुंची शांता, रूपा रमण समेत |
भय से थर थर कांपती, देखा जिन्दा प्रेत |

रूपा के  सौन्दर्य  को, ताके  सारे  मित्र |
सोम ताकता मित्र को, स्थिति बड़ी विचित्र ||

गुरुकुल से उस रात ही, गुरु गए पहुँचाय |
काका की करनी कहें, रहे तनिक सकुचाय ||


 यक्ष वंश की ताड़का, उसके पिता सुकेतु |
कठिन तपस्या से मिली, किया पुत्र के हेतु ||

असुर राज से व्याह दी, थी ताकत में चूर |
दैत्य सुमाली से हुवे, संतानें सब  क्रूर ||

पुत्री केकेसी हुई, रावण केरी माय ||
मारीच सुबाहु पुत्र दो, पूरा जग घबराय ||



वही ताड़का थी दिखी, सौजा रही सुनाय |
पुत्र रमण की मृत्यु पर, रही खूब इतराय ||


शोक करें किस हेतु हम, हमें गर्व अनुभूत |

रूपा शांता को बचा, लगे देव का दूत ||


मेरा प्यारा बटुक भी, छोटा किन्तु महान | 

अच्छी संगत पाय के, बनता बड़ा सयान || 


दालिम से सौजा कहे, मत  कर बेटा शोक |

इसी कार्य के वास्ते, आया था इहलोक ||


रो रो कर के शांता, रही स्वयं को कोस |

दुर्घटना में दिख रहा, सारा उसका दोष ||



रोते रोते बीतते, दुःख के हफ्ते चार |
घायल काका आ गया, चमत्कार आभार ||

कूदा पानी में जहाँ, था बहाव अति तेज |
ढीली काया कर दिया, कर मजबूत करेज ||

पानी में बहता गया, पूरी काली रात |
बहुत दूर था आ गया, पीछे छोड़ प्रपात ||

भूला था मैं रास्ता, रहा भटकता देख |
इक सन्यासी थे मिले, माथे चन्दन लेख ||

दर्शन करने जा रहे, श्रींगेश्वर महदेव | 
आया उनके संग ही, हुवे सहायक देव || 

हिम्मत से रहिये डटे, घटे नहीं उत्साह |
कोशिश चढ़ने की सतत, चाहे दुर्गम राह |

चाहे दुर्गम राह, चाह से मिले सफलता |
करो नहीं परवाह,  दिया तूफां में जलता |

चढ़ते रहो पहाड़, सदा जय माँ जी कहिये |
दीजै झंडे गाड़, डटे हिम्मत से रहिये ||

 प्यार बूढ़ दिल मोंगरा, अमलताश की आग ।
 लड़की को कर के विदा, चला बुझाय चराग ।।


सपना अपना चुन लिया, करे नहीं पर यत्न ।
बिन प्रयत्न कैसे मिले, कोई अद्भुत रत्न ।

1 comment:

  1. आदरणीय कविवर...
    आपके इस प्रबंध प्रयास को साहित्य में कभी-न-कभी कोई शोधार्थी अवश्य ढूँढता आयेगा..
    मैं तो इसे एक बार फिर तसल्ली से पढ़कर इस पर कुछ अवश्य कहूँगा... अभी आपके प्रवाह में बहते चलते हैं... और कथा के समापन की प्रतीक्षा करते हैं. इस काव्य-कथा को पूरा जानने की उत्सुकता बनी हुई है...

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