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Saturday 3 December 2011

भगवती शांता परम : सर्ग-1 अथ

सर्ग-1

अथ - शांता

Om 

सोरठा  
  वन्दऊँ श्री गणेश, गणनायक हे एकदंत |
जय-जय जय विघ्नेश, पूर्ण कथा कर पावनी ||1||
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjIkyY2gM5VMkoXouwgR7KL7vhzQHI4G2CQ-oTLi3HeLya8p2-2jmLHOPRxNxOKADT8NfdsChhCdy3zsNoKaCwu5SKsXvVjiJ-73hQkRd_-JmbHcPsMdw0zM41Qv9iR_oyy9K54pNuI1_4/s1600/shree-ganesh.jpg
वन्दऊँ गुरुवर श्रेष्ठ, जिनकी किरपा से बदल,
यह गँवार ठठ-ठेठ, काव्य-साधना में रमा ||2||

गोधन को परनाम , परम पावनी नंदिनी |
गोकुल मथुरा धाम, गोवर्धन को पूजता ||3||
http://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/8/8f/Ghaghra-River.png
वेद-काल का साथ, गंगा सिन्धु सरस्वती |
ईरानी हेराथ,  सरयू ये समकालिनी ||4||

राम-भक्त हनुमान,  सदा विराजे अवधपुर |
कर सरयू अस्नान, मोक्ष मिले अघकृत तरे ||5||
करनाली / घाघरा नदी का स्रोत्र 
करनाली का स्रोत्र, मानसरोवर के निकट |
करते जप-तप होत्र, महामनस्वी विचरते ||6||

File:Nepal map.png

क्रियाशक्ति भरपूर, पावन भू की वन्दना |

राम भक्ति में चूर, मोक्ष प्राप्त कर लो यहाँ ||7||
करनाली / घाघरा नदी के स्रोत्र  के पास मान-सरोवर
सरयू अवध प्रदेश, दक्षिण दिश में बस रहा |

यह विष्णु सन्देश, स्वर्ग सरीखा दिव्यतम ||8||

पूज्य अयुध  भूपाल, रामचंद्र के पूर्वज |
गए नींव थे डाल, बसी अयोध्या पावनी ||9||

दोहा 
शुक्ल पक्ष नवमी तिथी, पावन कातिक मास |
करो नगर की परिक्रमा, मन श्रृद्धा विश्वास ||

गुणों और आदर्श को, अपने ह्रदय उतार |
श्री राम के सामने, लम्बी लगे कतार |

  पुरुषोत्तम सरयू गए, होते अंतर्ध्यान |
त्रेता युग का अवध तब, हुआ पूर्ण वीरान |

कुश के सद्प्रयास से, बसी अयोध्या वाह |
फिर से सदगृहस्थ जन, चले अवध की राह |

 कृष्ण रुक्मणी भी यहाँ, आये द्वापर काल |
पुरुषोत्तम के चरण में, गये पुष्प थे डाल ||

कलयुग में फिर से बसी, नगरी अवध महान |
पुन: विक्रमादित्य से, बढ़ी नगर की शान ||

देवालय फिर से बने, बने सरोवर कूप |
स्वर्ग सरीखा लग रहा, अवध नगर का रूप ||
Janmabhoomi
राम-कोट  

सोरठा 
माया मथुरा साथ, काशी कांची अवंतिका |
महामोक्ष का पाथ, श्रेष्ठ अयोध्या द्वारिका ||10||

अंतरभू  प्रवाह, सरयू सरसर वायु सी
संगम तट निर्वाह,  पूज घाघरा शारदा ||11||
http://www.pilgrimageindia.net/hindu_pilgrimage/images/ayodhya1.jpg 
सरयू जी 
पुरखों का इत वास, तीन कोस बस दूर है |
बचपन में ली साँस, यहीं किनारे खेलता ||12||


परिक्रमा श्री धाम, चौरासी  कोसी  मिले |
पटरंगा मम ग्राम, होय सदा हर फाल्गुन ||13||
 
थे दशरथ महराज, उन्तालिस निज वंश के |

रथ दुर्लभ अंदाज, दशों दिशा में हांक लें ||14||

File:Parijat-tree-at-Kintoor-Barabanki-002.jpg 

पारिजात (किन्नूर)

पटरंगा से 3 कोस  
पिता-श्रेष्ठ 'अज' भूप, असमय स्वर्ग सिधारते |  
 निकृष्ट कथा कुरूप, चेतो माता -पिता सब ||15||

दशरथ बाल-कथा --

aish
दोहा
इंदुमती के प्रेम में, भूपति अज महराज |
लम्पट विषयी जो हुए, झेले राज अकाज ||1||
दीखते हैं मुझे दृश्य सब मनोहारी 
कुसुम कलिकाओं से सुगंध तेरी आती है

कोकिला की कूक में भी स्वर की सुधा सुन्दर 
प्यार की मधुर टेर सारिका सुनाती है

देखूं शशि छबि या निहारूं अंशु सूर्य के -
रंग छटा उसमे तेरी ही दिखाती है |
 
कमनीय कंज कलिका विहस 'रविकर'
तेरे रूप-धूप का सुयश फैलाती है
गुरु वशिष्ठ की मंत्रणा, सह सुमंत बेकार |
इंदुमती के प्यार ने, दूर किया  दरबार ||2||


क्रीड़ा सह खिलवाड़ ही, परम सौख्य परितोष |

सुन्दरता पागल करे, मानव का क्या दोष ||3||


अति सबकी हरदम बुरी, खान-पान-अभिसार |

क्रोध-प्यार बडबोल से,  जाय  जिंदगी  हार ||4||

 

झूले  मुग्धा  नायिका, राजा  मारें  पेंग |
वेणी लागे वारुणी,  दिखा रही वो  ठेंग ||5||

राज-वाटिका  में  रमे, चार पहर से आय |
आठ-मास के पुत्र को,  दुग्ध पिलाती धाय ||6||

नारायण-नारायणा,  नारद  निधड़क  नाद |
अवधपुरी का आसमाँ, स्वर्गलोक के बाद ||7||

वीणा से माला गिरी, इंदुमती पर  आय |
ज्योत्सना वह अप्सरा, जान हकीकत जाय ||8||

एक पाप का त्रास वो, यहाँ रही थी भोग |
स्वर्ग-लोक नारी गई, अज को परम वियोग ||9||

माँ का पावन रूप भी, सका न उसको रोक |
आठ माह के लाल को, छोड़ गई इह-लोक ||10||
विरह वियोगी महल में, कदम उठाया गूढ़ |
भूल पुत्र को कर लिया, आत्मघात वह मूढ़ ||11|

माता की ममता छली, करता पिता अनाथ |
रोय-रोय हारा शिशू , पटक-पटक के माथ ||12||

क्रियाकर्म  होता  रहा, तेरह दिन का शोक |
अबोध शिशु की मुश्किलें, रही थी बरछी भोंक ||13||  

आंसू बहते अनवरत, गला गया था बैठ |
राज भवन में थी सदा, अरुंधती की पैठ ||14|

पत्नी पूज्य वशिष्ठ की, सादर उन्हें प्रणाम |
 एक मास तक पालती, माता सम अविराम ||15||
File:Batu Caves Kamadhenu.jpg 
नंदिनी की माँ कामधेनु 
 महामंत्री थे सुमंत, गए गुरू के पास |
लालन-पालन की किया, कुशल व्यवस्था ख़ास ||16||

महागुरू मरुधन्व के, आश्रम में तत्काल |
 गुरु-आज्ञा पा ले गए, व्याकुल दशरथ बाल ||17||

जहाँ नंदिनी पालती, बाला-बाल तमाम |
दुग्ध पिलाती प्रेम से, भ्रातृ-भाव  पैगाम ||18||

माँ कामधेनु की पुत्री, करती इच्छा पूर |
देवलोक की नंदिनी, इस आश्रम की नूर ||19||

दक्षिण कोशल सरिस था, उत्तर कोशल राज |
सूर्यवंश के ही उधर, थे भूपति महराज ||20||

राजा अज की मित्रता, का उनको था गर्व |
 दुर्घटना  से थे दुखी, राजा-रानी सर्व ||21||

अवधपुरी आने लगे, ज्यादा कोसलराज |
राज-काज बिधिवत चले, करती परजा नाज ||22||

धीरे-धीरे बीतता, दुःख से बोझिल काल |
राजकुंवर बढ़ते चले, बीत गया इक साल ||23||

दूध नंदिनी का पिया, अन्प्राशन की बेर |
आश्रम से वापस हुए, फैला महल उजेर ||24||

ठुमुक-ठुमुक कर भागते, छोड़-छाड़ पकवान |
दूध नंदिनी का पियें, आता रोज विहान ||25||

उत्तर कोशल झूमता, राजकुमारी पाय |
पिताश्री भूपति बने, फूले नहीं समाय ||26||

पुत्री को लेकर करें, अवध पुरी की सैर |
राजा-रानी नियम से, लेने आते खैर ||27||

नामकरण था हो चुका,  धरते गुण अनुसार |
दशरथ कौशल्या कहें, यह अद्भुत ससार ||28||

कुछ वर्षों के बाद ही, फिर से राजकुमार |
विधिवत शिक्षा के लिए, गए गुरु आगार ||29||

अच्छे योद्धा बन गए, महाकुशल बलवान|
दसो दिशा रथ हांकले, बने अवध की शान ||30||

शब्द-भेद संधान से, गुरु ने किया अजेय |
अवधपुरी उन्नत रहे, बना एक ही ध्येय || 31||

राजतिलक विधिवत हुआ, आये कोशल-राज |
कौशल्या भी साथमे, हर्षित सकल समाज ||32||

बचपन का वो खेलना, आया फिर से याद |
देखा देखी ही हुई, खिंची रेख मरजाद ||33||

रावण, कौशल्या और दशरथ  
दशरथ युग में ही हुआ, दुर्धुश भट बलवान |
पंडित ज्ञानी जानिये, रावण  बड़ा महान ||1|

बार - बार कैलाश पर,  कर शीशों का दान |
छेड़ी  वीणा  से  मधुर, सामवेद  की  तान ||2||
 
भण्डारी ने भक्त पर, कर दी कृपा  अपार |
कई शक्तियों ने किया,  पैदा बड़े विकार ||3||

पाकर शिव वरदान वो, पहुंचा ब्रह्मा पास |
श्रृद्धा से की  वन्दना, की  पावन अरदास ||4||

ब्रह्मा ने परपौत्र को, दिए  कई वरदान |
ब्रह्मास्त्र भी सौंपते, सब शस्त्रों की शान ||5||

शस्त्र-शास्त्र का हो धनी, ताकत से भरपूर |
मांग अमरता का रहा, वर जब रावन क्रूर ||6||

ऐसा तो संभव नहीं, मन की गांठें खोल |
मृत्यु सभी की है अटल, परम-पिता के बोल ||7||

कौशल्या का शुभ लगन, हो दशरथ के साथ |
दिव्य-शक्तिशाली सुवन,  काटेगा दस-माथ ||

रावण थर-थर कांपता, क्रोधित हुआ अपार |
प्राप्त  अमरता  करूँ मैं, कौशल्या को मार ||8||

बोली मंदोदरी सुनो, नारी हत्या पाप |
झेलोगे कैसे भला,  भर जीवन संताप ||9||

तब  उसके  कुछ  राक्षस,  पहुँचे  सरयू तीर | 
कौशल्या का अपहरण, करके शिथिल शरीर ||10||

बंद पेटिका में किया, दिया था जल में डाल |
राजा दशरथ देख के, इनके सकल बवाल ||11||

राक्षस गण से जा भिड़े, चले तीर तलवार |
भगे पराजित राक्षस,  कूदे फिर जलधार ||12||

आगे बहती पेटिका, पीछे भूपति वीर |
शब्द भेद से था पता, अन्दर एक शरीर ||13||

बहते बहते पेटिका, गंगा जी में जाय |
जख्मी दशरथ को इधर, रहा दर्द अकुलाय ||14||

रक्तस्राव था हो रहा, थककर होते चूर |
गिद्ध जटायू देखता, राजा  है  मजबूर  ||15||
http://ecologyadventure2.edublogs.org/files/2011/04/turkey-vulture-sc5xey.jpg
अर्ध मूर्छित भूपती, घायल फूट शरीर |
औषधि से उपचार कर, रक्खा गंगा तीर ||16||

दशरथ आये होश में, असर किया वो लेप |
गिद्ध राज के सामने, कथा कही संक्षेप ||17||

कहा जटायू ने उठो, बैठो मुझपर आय |
पहुँचाउंगा शीघ्र ही, राजन उधर उड़ाय ||18||

बहुत दूर तक ढूँढ़ते, पहुँचे सागर पास |
पाय पेटिका खोलते, हुई बलवती आस ||19||

कौशल्या बेहोश थी, मद्धिम पड़ती साँस |
नारायण जपते दिखे, नारद जी आकाश ||20||
बड़े जतन करने पड़े, हुई तनिक चैतन्य |
सम्मुख प्रियजन पाय के, राजकुमारी धन्य ||21||

नारद विधिवत कर रहे, सब वैवाहिक रीत |
दशरथ को ऐसे मिली, कौशल्या मनमीत ||22||
नव-दम्पति को ले उड़े,  गिद्धराज खुश होंय |
नारद जी चलते बने, सुन्दर कड़ी पिरोय ||23||
jaimala
अवधपुरी सुन्दर सजी, आये कोशलराज |
दोहराए फिर से गए, सब वैवाहिक काज ||24||
 रावण के क्षत्रप 
सोरठा
रास रंग उत्साह,  अवधपुरी में खुब जमा |
उत्सुक देखे राह, कनक महल सजकर खड़ा ||

 
चौरासी विस्तार, अवध नगर का कोस में |
अक्षय धन-भण्डार,  हृदय कोष सन्तोष धन |
पांच कोस विस्तार, कनक भवन के अष्ट कुञ्ज |
इतने ही थे द्वार, वन-उपवन बारह सजे ||

 
शयन केलि श्रृंगार,  भोजन और स्नान कुञ्ज |
झूलन कुञ्ज बहार, अष्ट कुञ्ज में थे प्रमुख ||

 
चम्पक विपिन रसाल, पारिजात चन्दन महक |
केसर कदम तमाल, नाग्केसरी वन विचित्र ||

लवंगी-कुंद-गुलाब, कदली चम्पा सेवती |
  वृन्दावन नेवार, उपवन जूही माधवी || 

घूमें सुबहो-शाम, कौशल्या दशरथ मगन |
इन्द्रपुरी सा धाम, करें देवता ईर्ष्या ||

रावण के उत्पात, उधर झेलते साधुजन |
लगा के बैठा घात, कैसे रोके शत्रु-जन्म ||

मायावी इक दास, आया विचरे अवधपुर |
करने सत्यानाश, कौशल्या के हित सकल ||

चार दासियों संग, कौशल्या झूलें मगन |
उपवन मस्त अनंग, मायावी आया उधर ||

धरे सर्प का रूप, शाखा पर जाकर डटा |
पड़ी तनिक जो धूप, सूर्यदेवता ताड़ते ||

महा पैतरेबाज, सिर पर वो फुफ्कारता |
दशरथ सुन आवाज, शब्द-भेद कर मारते ||  

रावण के षड्यंत्र, यदा कदा होते रहे |
जीवन के सद-मंत्र, सूर्य-वंश आगे चला ||

गुरु वशिष्ठ का ज्ञान, सूर्य देव के तेज से | 
अवधपुरी की शान, सदा-सर्वदा बढ़ रही ||

रावण रहे उदास, लंका सोने की बनी  |
करके कठिन प्रयास, धरती पर कब्ज़ा करे ||

जीते जो भू-भाग, क्षत्रप अपने छोड़ता |
 निकट अवध संभाग, खर दूषण को सौंप दे || 

खर दूषण बलवान, रावण सम त्रिशिरा विकट |
डालें नित व्यवधान, गुप्त रूप से अवध में ||

त्रिजटा शठ मारीच, मठ आश्रम को दें जला |
भूमि रक्त से सींच, हत्या करते साधु की || 

कुत्सित नजर गढ़ाय, राज्य अवध को ताकते |
 खबर रहे पहुँचाय, आका लंका-धीश को ||

गए बरस दो बीत, कौशल्या थी मायके |
पड़ी गजब की शीत, 'रविकर' छुपते पाख भर ||

जलने लगे अलाव, जगह-जगह पर राज्य में |
दशरथ यह अलगाव, सहन नहीं कर पा रहे ||

भेजा चतुर सुमंत्र, विदा कराने के लिए |
रचता खर षड्यंत्र, कौशल्या की मृत्यु हित ||


 
 असली घोडा मार, लगा स्वयं रथ हाँकने ||
कौशल्या असवार, अश्व छली लेकर भगा ||

धुंध भयंकर छाय, हाथ न सूझे हाथ को |
रथ तो भागा जाय, मंत्री मलते हाथ निज ||

कौशल्या हलकान, रथ की गति अतिशय विकट |
रस्ते सब वीरान, कोचवान ना दीखता ||

समझ गई हालात, बंद पेटिका सुमिर कर |
ढीला करके गात, जगह देखकर कूदती ||

लुढ़क गई कुछ दूर, झाडी में जाकर छुपी ||
चोट लगी भरपूर, होश खोय बेसुध पड़ी ||

मंत्री चतुर सुजान, दौडाए सैनिक सकल |
देखा पंथ निशान, सैनिक ने सौभाग्य से ||

लाया वैद्य बुलाय, सेना भी आकर जमी |
नर-नारी सब आय, हाय-हाय करने लगे ||

खर भागा उत जाय, मन ही मन हर्षित भया |
अपनी सीमा आय, रूप बदल करके रुका ||

रथ खाली अफ़सोस, गिरा भूमि पर तरबतर |
रही योजना ठोस, बही पसीने में मगर ||

रानी डोली सोय, अर्ध-मूर्छित लौटती |
वैद्य रहे संजोय, सेना मंत्री साथ में ||

दशरथ उधर उदास, देरी होती देखकर |
भेजे धावक ख़ास, समाचार लेने गए ||
       रावण का गुप्तचर   
दोहे
असफल खर की चेष्टा, होकर के गमगीन |
लंका जाकर के कहे,  चेहरा लिए मलीन ||

रावण शाबस बोलता, काहे  होत उदास |
कौशल्या के गर्भ का, करके पूर्ण विनाश ||
File:Demon Yakshagana.jpg
खर बोला भ्राता ज़रा, खबर कहो समझाय |
यह घटना कैसे  हुई, जियरा तनिक जुड़ाय ||

रानी रथ से कूद के, खाय चोट भरपूर |
तीन माह का भ्रूण भी, हुआ स्वयं से चूर ||

खर के संग फिर गुप्तचर, भेजा सागर पार |
वह सुग्गासुर जा जमा, शुक थे जहाँ अपार ||
हरकारे वापस इधर, आये दशरथ पास |
घटना सुनकर हो गया, सारा अवध उदास ||

गुरुकुल में शावक मरा, हिरनी आई याद |
अनजाने घायल हुई, चखा दर्द का स्वाद ||

गुरु वशिष्ठ की अनुमती, तुरत गए ससुरार |
कौशल्या को देखते, नैना छलके प्यार ||

संक्रान्ति से सूर्य ने, दिए किरण उपहार |
अति-ठिठुरन थमने लगी, चमक उठा संसार ||

दवा-दुआ से हो गई, रानी जल्दी ठीक |
दशरथ के सत्संग से, घटना भूल अनीक ||

विदा मांग कर आ गए, राजा-रानी साथ |
चिंतित परजा झूमती, होकर पुन: सनाथ ||
http://www.shreesanwaliyaji.com/blog/wp-content/uploads/2011/02/vasant-panchami-saraswat-sanwaliyaji_bhadsoda.jpg
धीरे धीरे सरकती, छोटी होती रात |
 हवा बसंती बह रही, जल्दी होय प्रभात |
दिग-दिगंत बौराया | मादक  बसंत आया ||
तोते सदा पुकारे | पर मैना दुत्कारे ||
काली कोयल कूके | लोग होलिका फूंके || 
सरसों पीली फूली | शीत बची मामूली  ||
भौरां मद्धिम गाये  | तितली मन बहलाए ||
भाग्य हमारे जागे | दुःख-दारिद्र, भागे || 
पीली सरसों फूलती, हरे खेत के बीच |
 कृषक निराई कर रहे, रहे खेत कुछ सींच ||
तरह तरह की जिंदगी, पक्षी कीट पतंग |
पशू प्रफुल्लित घूमते, नए सीखते ढंग ||


कौशल्या रहती मगन, वन-उपवन में घूम ||
धीरे धीरे भूलती, गम पुष्पों को चूम ||

कौशल्या के गर्भ की, कैसे रक्षा होय |
दशरथ चिंता में पड़े, आँखे रहे भिगोय ||

गिद्धराज की तब उन्हें, आई बरबस याद |
तोते कौवे की बढ़ी, महल पास तादाद ||

कौशल्या जब देखती, गिद्धराज सा गिद्ध |
याद जटायू को करे, कार्य करे जो सिद्ध ||

यह मोटा भद्दा दिखे, आत्मीय वह रूप |
यह घृणित हरदम लगे, उसपर स्नेह अनूप ||

गिद्ध दृष्टि रखने लगा, बदला बदला रूप |
अलंकार त्यागा सभी, बनकर रहे  कुरूप ||

केवल दशरथ जानते, होकर रहें सचेत |

अहित-चेष्टा में लगे, खर-दूषण से प्रेत ||

सुग्गासुर अक्सर उड़े, कनक महल की ओर |

देख जटायू को हटे, हारे मन का चोर ||

एक दिवस रानी गई, वन रसाल उल्लास |

सुग्गासुर आया निकट, बाणी मधुर सुभाष ||

माथे टीका शोभता, लेता शुक मनमोह |

ऊपर से अतिशय भला, मन में राखे द्रोह ||

रानी वापस आ गई, आई फिर नवरात |
नव-दुर्गा को पूजती, एक समय फल खात ||

स्नानकुंज में रोज ही, प्रात: करे नहान |

भक्तिभाव से मांगती, माता सम सन्तान ||

सुग्गासुर की थी नजर, आ जाता था पास |
 स्वर्ण-हार हारक उड़ा, झटपट ले आकाश ||
gold necklace
सुनकर चीख-पुकार को, वो ही भद्दा गिद्ध ||
शुक के पीछे लग गया, होकर अतिशय क्रुद्ध ||

जान बचाकर शुक भगा, था पक्का अय्यार ||

छुपा सुबाहु के यहाँ, पीछे छोड़ा हार ||

वापस पाकर हार को, होती हर्षित खूब |

राजा का उपहार वो, गई प्यार में डूब ||
Jawalamukhi Kanya Puja
 नवमी को व्रत पूर्ण कर, कन्या रही खिलाय  |
 चरण धोय कर पूजती, पूरी-खीर जिमाय ||

'रविकर' दिन का ताप अब, दारुण होता जाय |

पाँव इधर भारी हुए, रानी फिर सकुचाय ||

  सर्ग-1 : समाप्त 

3 comments:

  1. प्रिय और आदरणीय रविकर जी ..बहुत ही सुन्दर सर्ग ....अद्भुत और ज्ञान वर्धक जानकारी ...हम सब के ज्ञान वर्धन हेतु आप का ये परिश्रम सदा सदा के लिए अमर बने ..ढेर सारी शुभ कामनाएं ..जय श्री राम
    भ्रमर 5

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  2. महाकवि रविकर जी,
    आपके छंद-कौशल से हमेशा मुग्ध रहा हूँ...
    केवल कथ्य से मत-भिन्नता के कारण ही टिप्पणी से सकुचाता रहा...
    मेरा कुछ विषयों पर मत अलग है...
    — मूर्ती-पूजा को मैं बहुत बाद की शुरुआत मानता हूँ.
    — गिद्ध, भालू, वानर आदि के प्रसंगों को कपोल-कल्पित कथाएँ मानता हूँ.
    — इतना सत्य हो सकता है कि शांता राम की सहोदरा हो...
    किन्तु यह चिंतन और विश्लेषण करने योग्य बात है कि शृंगी ऋषि ने दशरथ की तीनों रानियों को फ़ल/ खीर (कृत्रिम गर्भादान) पद्धति से संतान प्राप्ति करवाई. [उन्नत मेडिकल साइंस का नमूना] ... इसका विस्तार आगे कभी...
    — बिहार में गिद्धौर जगह है... जहाँ की गिद्ध जाति जो दूरबीनों का व्यवसाय किया करती थी.. श्रीराम के समय में उनकी साइंस इतनी उन्नत थी कि उनका कार्य अन्तरिक्ष में यान प्रक्षेपण करना था और दूसरे ग्रहों से संपर्क साधना उनका कौशल था...
    — हनुमान हरिवर्ष [ब्रिटेन] के वासी थे और वे वानर (वैकल्पिक नर) जाति के थे सुग्रीव और बाली भाइयों में विच्छेद हो जाने के बाद वे ऋषिमुक पर्वत (यूराल पर्वत) के वासी सुग्रीव की सेवा में थे... योरोप उस समय हरिप्रदेश के रूप में ख्यात था.. और साइबेरिया प्रदेश शबरी प्रदेश के रूप में ख्यात था. इस तरह के न जाने कितने ही प्रकरण एक सूत्र में बंधकर भौगोलिक और वैज्ञानिक दृष्टि से इस कथा को नया रूप देने को उतावले हैं... मैं श्रीराम की कथा को भारतमात्र की कथा नहीं मानता अपितु सम्पूर्ण विश्व पटल पर घटित घटना मानता हूँ. अतः आपसे मत भिन्नता होते हुए भी मेरा आपसे प्रेम इतना है कि वह श्रद्धावश आपके छंद-गुणों को स्वयं में उतार लेना चाहता है.

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  3. ..Doha aur chaupayee ka sundar pryaog..
    ...bahut hi sundar manohari chitramayee prastuti ke liye aabhar!

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